Chandrayaan 3 Landing Date
साल 1969 अमेरिका का Apollo 11 मिशन महज चार दिन में धरती से चांद तक पहुंच गया और इंसान ने पहली बार चांद पर कदम रखा। साल 2010 चीन में जंगी मिशन के दौरान भी धरती से चांद तक की दूरी महज चार दिन में ही तय कर ली थी। लेकिन धरती से चांद की दूरी सबसे कम वक्त में तय करने का रिकॉर्ड सोवियत रशिया के लूना वन मिशन के नाम है, जिसने 1959 में चांद तक पहुंचने में महज 36 घंटे का वक्त लिया। अब सवाल यह उठता है कि अगर चीन, अमेरिका और रशिया के स्पेसक्राफ्ट को धरती से चांद तक पहुंचने में महज चार दिन का वक्त लगता है तो फिर भारत के चंद्रयान 3 को चांद तक पहुंचने में 40 से 42 दिन का वक्त क्यों लग रहा है? अब जितना यह सवाल दिलचस्प है, उतना ही दिलचस्प इसका जवाब भी है। तो चलिए बताते हैं आपको कि आखिर क्यों बाकी देशों के मुकाबले हमारा चंद्रयान चांद तक पहुंचने में इतना वक्त ले रहा है।
चंद्रयान 3 मिशन किया है? What is Chandrayaan 3 Mission?
अगर आप चंद्र यान से जुड़ी खबरें देख रहे होंगे तो आपको पता होगा कि 14 जुलाई को चंद्रयान मिशन को इसरो द्वारा लॉन्च किया गया था और इसरो द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक 23 अगस्त को चंद्रयान तीन के चांद पर लैंड करने की उम्मीद की जा रही है। अब यहां आपका यह जानना जरूरी है कि जो चांद आपको और हमें धरती से दिखाई देता है उसकी धरती से दूरी 3,83,000 किलोमीटर है। यानी धरती से छोड़े गए स्पेसक्राफ्ट को चांद तक पहुंचने में लगभग 4 लाख किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अब चांद तक जाने के दो तरीके होते हैं। पहला, धरती से रॉकेट छोड़िए और वह रॉकेट सीधा धरती से चांद की तरफ उड़ान भर दे, जिससे वह चार दिन में ही सीधे चांद तक पहुंच जाएगा। यह तरीका वही है, जिसे चीन, अमेरिका और रशिया यूज करते आ रहे हैं। अब इसके अलावा चांद तक पहुंचने का दूसरा तरीका भी होता है, जिसमें रॉकेट द्वारा स्पेसक्राफ्ट को पहले अर्थ के ऑर्बिट में पहुंचाया जाता है और फिर यह स्पेसक्राफ्ट वहीं पर चक्कर लगाना शुरू कर देता है।
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क्यों चंद्रयान 3 को चाँद पर पहुँचने मैं 42 दिन लग रहे है?
अब यहां पर यह स्पेसक्राफ्ट चांद तक की दूरी तय करने के लिए फ्यूल की जगह दो चीजों का इस्तेमाल करता है। पहला धरती की रोटेशन स्पीड और दूसरा उसके ग्रेविटेशनल पुल का। इसे थोड़ा और आसान भाषा में समझते हैं। असल में होता यह है कि स्पेसक्राफ्ट जब धरती के ऑर्बिट पर पहुंच जाता है तो वह अर्थ के ग्रेविटेशनल पुल की मदद से अर्थ ऑर्बिट में चक्कर लगाना शुरू कर देता है। अब धरती अपनी धुरी पर एक हज़ार 670 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से घूमती है, जिससे स्पेसक्राफ्ट को रफ्तार पकड़ने में मदद मिलती है। फिर धीरे धीरे धरती पर बैठे साइंटिस्ट इसकी ऑर्बिटल रिंग के जरिए स्पेसक्राफ्ट की ऑर्बिट का दायरा बदलते हैं। इसे बर्न भी कहते हैं, जिससे स्पेसक्राफ्ट का धरती के इर्द गिर्द चक्कर लगाने का जो दायरा है वह बढ़ जाता है, जिससे धरती की ग्रेविटेशनल फोर्स का असर उस पर कम होना शुरू हो जाता है। और फिर एक वक्त ऐसा आता है जब स्पेसक्राफ्ट को बर्न की मदद से चांद के रास्ते पर सीधे डाल दिया जाता है और बिना किसी मेहनत के आसानी से स्पेसक्राफ्ट चांद पर पहुंच जाता है। अब यही वह तरीका है जिसके जरिए इसरो चंद्रयान तीन को चांद पर भेज रहा है।
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अब तक इसरो ने ऑर्बिटल मुंबई के जरिए दो बार चंद्रयान तीन का ऑर्बिट बदला है। अभी यह 41,603 किलोमीटर इनटू 226 किलोमीटर ऑर्बिट में है। अब यह जो गणना है, यह थोड़ी साइंटिफिक है तो मुझे नहीं लगता कि इसको और समझने की जरूरत है। यानी दायरा जो है, वह बड़ा होता जा रहा है। अब चांद के लिए रवाना होने से पहले चंद्रयान को पांच बार ऑर्बिटल मुंबई रिंग करनी है, जिसके बाद इसे लूनर ट्रांसफर ट्रेजिक ट्री यानी चांद के रास्ते पर डाल दिया जाएगा, जिससे यह सीधे बिना किसी मेहनत के चांद पर पहुंच जाएगा। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी स्पेसक्राफ्ट को सीधे चांद पर भेजा जा सकता है तो
इसरो ने चंद्रयान 3 के लिए इतना लंबा रास्ता क्यों चुना?
इसके पीछे की भी दो वजहें हैं। पहला कॉस्ट यानी खर्चा। दूसरा ताकतवर रॉकेट। पहले खर्चे की बात करें तो चीन ने जो लॉंग मार्च फाइव सीई रॉकेट के जरिए अपना चैंग फाइव मिशन दो हज़ार 20 में चांद पर रवाना किया था, उसकी कॉस्ट थी लगभग 1700 करोड़ रुपये। वहीं स्पेसएक्स ने जो फाल्कन रॉकेट लॉन्च किया था, उसकी कॉस्ट भी एक हज़ार करोड़ के आसपास थी, जबकि भारत का पूरे मून मिशन पर खर्च आया महज ₹615 करोड़ Chandrayaan 3 Cost। यानी कुल मिलाकर चांद पर सीधे रॉकेट भेजने का मतलब है तीन गुना ज्यादा खर्च। यही कारण है कि इसरो सीधे चांद पर रॉकेट नहीं भेजता। हालांकि इसका दूसरा कारण भी है और वह है ताकतवर रॉकेट की कमी होना। अंतरिक्ष में किसी स्पेसक्राफ्ट को सीधे चांद तक ले जाने में काफी फ्यूल की जरूरत होती है और ऐसे कि इसमें उस रॉकेट की जरूरत होती है, जिसकी पेलोड कैपेसिटी ज्यादा हो यानी वह ज्यादा भार लेकर। उड़ान भर सके ताकि उसमें ज्यादा से ज्यादा फ्यूल भरा जा सके। अब भारत की बात करें तो भारत का सबसे ताकतवर रॉकेट है LBM PM4, जिसकी पेलोड कैपेसिटी है 22,000 पाउंड। जबकि 1969 में अमेरिका ने Apollo 11(America Moon Mission) के लिए जो सैटर्न फाइव रॉकेट यूज किया था उसकी पेलोड कैपेसिटी थी 3,00,010 हज़ार पाउंड। चीन ने दो हज़ार 20 में अपने मून मिशन के लिए जो लॉन्ग मार्च फाइव रॉकेट यूज किया था, उसकी पेलोड कैपेसिटी थी 55 हज़ार 115 पाउंड और स्पेसएक्स का स्टार शिप अब तक का दुनिया का सबसे ज्यादा ताकतवर रॉकेट है, जो 3,30,000 पाउंड का पेलोड कैरी कर सकता है। यानी कुल मिलाकर बात इतनी है कि अगर भारत के पास इतने ताकतवर रॉकेट नहीं भी हैं तो इसरो ने इसे अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया, बल्कि इसरो ने इसे अपनी ताकत बनाया और सबसे कम खर्च में इसरो चंद्रयान तीन के जरिए इतिहास रचने जा रहा है। तो यह है इसरो के साइंटिस्ट की स्मार्टनेस, जिन्होंने कम खर्चे में ही चंद्रयान जैसा मिशन रच दिया। आपको यह जानकारी कैसी लगी हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताइएगा। और जानकारी से भरे ऐसे ही और वीडियोस देखने के लिए सब्सक्राइब करें हमारा चैनल अनकट। शुक्रिया। में।